देह की प्रयोगशाला में
रचकर शब्दयान
रोज़ बिठा देता हूँ एक कविता
हृदय के श्रीहरिकोटा से
करता हूँ प्रक्षेपित अंतरिक्ष में
पृथ्वी की परिक्रमा कर रही हैं कविताएँ
दे रही हैं ख़बर
कहाँ बसाये जा रहे तृष्णा के नगर
बैर में लिपटा जीवन
बता रही हैं कविताएँ
कौन खींच रहा पृथ्वी के केश
किसने कुतर दिए हैं पर्वत
कितना मलिन है पृथ्वी का मुख
कैसे दूर होता जा रहा
पृथ्वी से ऋतुकाल
कविताएँ चित्र उतारकर
भेज रही हैं पृथ्वी पर
कौन है स्वाधीन
कौन है ग़ुलाम
नाप रही हैं कविताएँ
कितना है कराहों का तापमान
जीवन का घटता मान
कौन कितना किसी से दूर
कितना पास
कितनी बची रह गयी
जीने की आस
कविताएँ दे रही हैं ख़बर
कहाँ-कहाँ बची रह गयी पृथ्वी
प्रेम के रंग में रँगी रहने के लिए