सुभाष मिश्र
अभी कुछ दिनों पहले ही नक्सलाइट संगठनों की ओर से समाचार पत्रों के माध्यम से तीन प्रमुख शर्तों जिनमें सशस्त्र बलों को हटाने, माओवादी संगठनों पर लगे प्रतिबंध हटाने और जेल में बंद उनके नेताओं की बिना शर्त रिहाई शामिल थीं, के साथ समझौता वार्ता की बात कही गई थी। सरकार ने अपनी ओर से नि:शर्त समझौता वार्ता की बात कही। इस बीच बस्तर के नारायणपुर में नक्सलाइट द्वारा किये गये विस्फोट से एक बस में बैठकर अपने कैंप की ओर से लौट रहे 25 जवानों में से 5 जवान शहीद हो गये। ये सभी जवान बस्तर छत्तीसगढ़ के थे और अधिकांश आदिवासी थे। बस्तर में जब से नक्सलाइट गतिविधियों संचालित है, उनमें मरने वाले अधिकांश आदिवासी ही रहे हैं। दोनों ओर से होने वाले हमले, अत्याचार का शिकार नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी ही ज्यादा होते हैं। सलवा-जुडूम के नाम पर चले अभियान में भी आदिवासी ही बेघर-बार हुए। जब वे अपने घरों की ओर लौटे तो नक्सलियों ने चुन-चुनकर उन्हें अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया। इस बीच में कुछ संगठनों द्वारा बस्तर में शांति बहाली और खून-खराबे को रोकने के लिए एक 11 दिवसीय दांडी यात्रा निकाली जिसका समापन आज रायपुर में हुआ। इस यात्रा के समापन पर यह कहा गया कि प्रतिहिंसा से माओवादी आंदोलन को खत्म नहीं किया जा सकता। माओवादियों को भी यह समझ लेना चाहिए कि उनकी विचारधारा का भी कोई भविष्य नहीं है। आंदोलनकारियों के अनुसार, 20 सालों में 12 हजार से अधिक लोगों की जान इस आंदोलन के चलते गई है।
पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से 1967 में शुरु हुआ यह आंदोलन वहां से 1971 में लगभग समाप्त होकर धीरे-धीरे अन्य क्षेत्रों में फैल गया। इस आंदोलन की चपेट में पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, केरल जैसे राज्य आ गये। छत्तीसगढ़ जो कभी मध्यप्रदेश का हिस्सा था, उसे विरासत में नक्सलवाद मिला। आज छत्तीसगढ़ के 28 में से 14 जिले रेड कारिडोर के नाम से नक्सलवाद की चपेट में हैं।
छत्तीसगढ़ में यूं तो नक्सलियों के छोटे-मोटे हमले आये दिन होते रहते हैं, किन्तु दस बड़े ऐेसे हमले हैं जिससे छत्तीसगढ़ राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रहा। बहुत सारे लोगों के मन में समूचे छत्तीसगढ़ की छवि नक्सल प्रभावित इलाके की बनी हुई है। बस्तर का नाम आते ही लोग गोली-बारूद, विस्फोट को याद करते हैं। बस्तर कभी अपने सकारात्मक कार्यों की वजह से चर्चा में नहीं रहा। मीडिया में उसकी छवि कभी पिछड़ेपन, कभी घोटुल, कभी अबुझमाड़ तो कभी नक्सलाइट हमले की बनी रही। आज का बस्तर तेजी से बदल रहा है।
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के लोकसभा चुनाव 2019 के पहले चरण की वोटिंग से पहले नक्सलियों ने बड़े हमले को अंजाम दिया था। जिसमें भाजपा विधायक भीमा मंडावी समेत पांच लोगों की मौत हो गई थी। महाराष्ट्र-छत्तीसगढ़ सीमा के गढ़चिरौली जिले में नक्सली ने हमला किया, जिसमें 15 जवान शहीद हुए और एक ड्राइवर की मौत हो गई। अरनपुर में नक्सलियों ने दूरदर्शन की टीम पर हमला किया, इसमें एक कैमरामैन की मौत हुई और दो सीआरपीएफ के जवान शहीद हो गए थे। 27 अक्टूबर 2018 को छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों ने आईईडी ब्लास्ट कर सीआरपीएफ के वाहन को उड़ा दिया था। इस हमले में सीआरपीएफ की 168 बटालियन के चार जवान शहीद हुए और दो जवान जख्मी हो गए थे।
देश का सबसे बड़ा नक्सली हमला ताड़मेटला कांड- 6 अप्रैल 2010 को दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला में नक्सलियों ने पैरामिलिट्री फोर्स पर हुआ। इस हमले में 75 सुरक्षाकर्मियों को मार दिया गया था।
झीरम घाटी हमला-25 मई 2013 सुकमा जिले के दरभा घाटी में नक्सलियों ने परिवर्तन यात्रा पर निकले कांग्रेस पार्टी पर हमला कर दिया था। इस हमले में 30 से ज्यादा कांग्रेसी नेताओं की हत्या कर दी गई थी। कांग्रेस के कद्दावर नेता और बस्तर टाइगर कहे जाने वाले महेंद्र कर्मा और नंद कुमार पटेल की मौके पर ही हमले में मौत हो गई थी। वहीं, घायल पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल की भी 17 दिनों के बाद मौत हो गई।
11 मार्च 2014 को झीरम घाटी हमले के करीब एक साल बाद 12 जवान फिर शहीद हुए। 2 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव के दौरान बीजापुर और दरभा घाटी में 5 जवान शहीद और 14 लोगों की मौत हो गई थी। 11 मार्च 2017 सुकमा जिले के दुर्गम भेज्जी इलाके में सीआरपीएफ के 11 जवान शहीद हुए थे।
13 मार्च 2018 को सुकमा में नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर एंटी लैंडमाइन व्हीकल को उड़ा दिया था। इस हमले में सीआरपीएफ के 9 जवानों के शहीद हो गए थे। सीआरपीएफ के 212 वीं बटालियन के किस्टाराम थाना क्षेत्र में एक शक्तिशाली विस्फोट में सीआरपीएफ के 25 जवान शहीद और 6 जवान घायल हुए थे। ये जवान सीआरपीएफ की 74वीं बटालियन के थे।
पुलिस और नक्सलियों की मुठभेड़ के बीच यह यक्ष प्रश्न है यह कि इस समस्या का आखिर समाधान किस तरह से निकला जाए। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अजीत जोगी इसे सामाजिक, आर्थिक समस्या बताकर इनका निराकरण दोनों स्तर से करना चाहते थे। इसके बाद पंजाब ने आतंकवाद से निपटने वाले पंजाब के डीजी पुलिस के पीएस गिल को सलाहकार बनाकर इस समस्या का हल खोजने की कोशिश की गई। बस्तर में हो रहे विकास कार्य, मौजूदा पुलिस बल और यहां संचालित गतिविधियों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि बस्तर नक्सली आतंकवाद के साये में जी रहा है।
जगदलपुर जिला मुख्यालय पर 24 घंटे सातों दिन चलने वाली लाला जगदलपुरी लायब्रेरी में अपना भविष्य गढ़ते-पढ़ते हुए विद्यार्थी हो या सामने के मैदान में खेलते हुए खिलाड़ी। इसी तरह दंतेवाड़ा के गुरुकुल परिसर के विद्यार्थी हो या नारायणपुर में रामकृष्ण मिशन आश्रम के छात्र। पूरे बस्तर में अंदरुनी इलाकों को छोड़कर अद्र्ध शहरीय क्षेत्रों में वैसी ही गतिविधियां संचालित हो रही है, जैसी किसी सामान्य जिल में। बस्तर में धीरे-धीरे नक्सली आंदोलन के पुराने नेता बीमारी के कारण दृश्य से गायब है और उनकी जगह नये लोग अलग-अलग दलम में नये सिरे से अपना अस्तित्व बताने के लिये इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं।
नक्सली हमले में मरने वाले जवान हो या ग्रामीणजन, ये हिंसा रूकनी चाहिए। इस बारे में सरकार को पहल करके बातचीत के लिए आगे आना होगा। दोनों पक्षों की बात संवाद के स्तर और समझौते के स्तर पर आये, इसके लिए मध्यस्थ की आवश्यकता भी होगी। यदि ऐसा नहीं होता तो नक्सली अपने आंदोलन को फैलाते रहेंगे और सरकार की ओर से भी इसे रोकने के लिए अभियान जारी रहेगा। इन सबके बीच इस क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जान सांसत में बनी रहेगी।
सत्ता में कोई भी पार्टी की सरकार क्यों न हो, चुनाव के समय पक्ष-विपक्ष दोनों ही एक दूसरे पर नक्सलाइट से सांठ-गांठ का आरोप लगाने से नहीं चुकते। जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लडऩे वाले बहुत से लोग नहीं चाहते कि खनिज और वन संपदा के दोहन के नाम पर उनके बीच कॉरपोरेट की घुसपैठ हो। नक्सलवाद से जुड़े लोग भी इनका विरोध करते हैं। विकास के लिए प्रतिबद्ध सरकारें ऐसे क्षेत्रों में बड़े औद्योगिक समूहों को आमंत्रित करना चाहती है।
कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं जो पर्यावरण, मानव अधिकार, जल-जंगल-जमीन आदि की लड़ाई में सक्रिय रहती है, उनसे जुड़े लोग पत्रकार, बहुत बार इन क्षेत्रों में देखे जाते हैं। यहां की खबरें महानगरों में प्रकाशित करते हैं। पुलिस, प्रशासन और सरकार में बहुत से लोग इन्हें अर्बन नक्सलाइट के नाम से पुकारते हैं। यहां हाल के दिनों में प्रचलित ऐसा शब्द है जिसको लेकर लोगों के अलग-अलग विचार है। कुछ लोग अर्बन नक्सलवाद को सफेद झूठ करार देते है, तो कुछ लोग इनकी उपस्थिति, हस्तक्षेप और समर्थन पर उंगली उठाकर इनके खिलाफ कार्यवाही क मांग करते हैं। नक्सलवाद से निपटने के लिए पुलिस प्रशासन के पास जो सीक्रेट मनी रहती है, कुछ लोग उसके उपयोग को लेकर भी सवाल उठाते हैं। ऐसा भी माना जाता है कि सरकारी मशीनरी और उसके कामकाज से जुड़ा अमला नक्सली आतंक के नाम पर अंदरूनी क्षेत्र में होने वाले निर्माण पर भ्रष्टाचार करता है जिसे देखने, सुनने वाला कोई नहीं होता। बहुत बार यहां का सरकारी अमला, नेता और व्यापारी जिनकी आपस में दुरभि संधि है, वे भी नहीं चाहते कि कोई बाहर से आकर उनकी खोज खबर ले। वे नक्सली आतंक के साये में अपना उल्लू सीधा करके, मनमाना भ्रष्टाचार करने और अलग-अलग तरीकों से धन कमाने में लगे हुए हैं। अब समय की मांग है कि बस्तर से यह आतंक का साया किसी भी तरह समाप्त हो।