ध्रुव शुक्ल
राजनीतिक दल अपने-अपने पापों के घड़े जैसे लगते हैं तभी तो वे खुद ही एक-दूसरे के पापों का घड़ा फोड़ने का शोर मचाते रहते हैं। सत्ता में भागीदारी की जरूरत पड़ने पर सारे दल अपने पापों के घड़े छिपाकर गठबंधन भी कर लेते हैं। इनमें से जो भी गठबंधन तोड़कर भागता है तो ये दल उस भगोड़े का घड़ा फिर फोड़ने लगते हैं। अगर वह फिर वापस लौट आये तो उसके पाप का घड़ा फिर छिपा देते हैं। इस तरह सब एक-दूसरे के पापों की फसल काटकर राजकाज में भागीदार बनते रहते हैं और जनता को तमाशबीन बनाये रखते हैं।
कई साल बीत गये यह पता ही नहीं चलता कि ये लोग देश की बढ़ती आबादी, शिक्षा, खेती-किसानी, संस्कृति, स्वास्थ्य, सुरक्षा, रोज़गार और समृद्धि के बारे में क्या सोचते हैं। ये सत्ता के भीतर रहें चाहे बाहर, बस एक-दूसरे से एक ही बात कहते रहते हैं कि हम जो कर रहे हैं आप भी तो वही करते थे। एक-दूसरे से बदला लेने की चाह से भरे ये लोग देश के जीवन में क्या कभी कोई बदलाव ला सकेंगे?
इन ताश के बावन पत्तों को देश के जन और कब तक फेंटते रहेंगे? क्या इनके अलावा कोई जन-विकल्प संभव है, जो बाज़ार के अनुरूप रंग बदलती राजनीतिक दुनिया में लोकतंत्र के बहुरंगी और बहुविश्वासी रूप को खुशहाल और आत्मीय बनाये रख सके?