हे पुरुषोत्तम
कहाँ जा रहे हो!
बाँह गहो
गुदना से गुदे रहो
गाल पर काले तिल की तरह रहो
अंग में बसो
देह का उपवन सींचो
घर के चकिया-जाँते टाँको
धान कूटो
यूँ ओखली-मूसल उठाकर न जाओ
आले में लिखना से लिखे रहो
ग्राम छोड़कर क्यों जा रहे हो
स्थान देवताः दो
वे अयोध्या छोड़कर जा चुके हैं
उस पृथ्वी की खोज में
जो सदियों पहले
उनके पाँवों के नीचे फिसल गयी
वे उस स्थान की खोज में भटक रहे हैं
जहाँ अपना नाम-रूप खो सकें
नेत्रों में भर-भर आती है
' पृथ्वी-तनया-कुमारिका-छवि '*
वे एकान्त में रोते हैं
उनकी धरती कोई हर ले गया है
( जनकसुता के लिए कवि निराला का संबोधन)